रोज़ हर रोज़ ..बेनाम पते पर खत डाले ..सोचा, मज़मून अपनी शिद्दत की वजह से मंज़िलों तक पहुँच जाएगा ...पर, सोचा हुआ सच होता है कभी ...रूह की चिट्ठी पर तो साफ़ साफ़ लिख दिया उसका पता ...गहरे अक्षरों से खोदकर ...लेकिन मंज़िलें रवाना हो गयीं पता बताए बगैर ....रूह की चिट्ठी कहाँ डालती ...रख ली अपने पास ..........................................................
बरस बीते, जुग बीते ....दरिया बूढ़ा नहीं हुआ ...अलबत्ता याद के टापू उग आए उसके बीच ....किनारों ने कितने ही अफ़साने दरिया के पानियों पर लिख कर बहा दिए ...पर वो, समंदर तक पहुंचे ही नहीं ..............................................
कभी तो कोई बीज ...कोई अफ़साना..समंदर तक पहुंचेगा ....उगेगा साहिलों पर ....छू लेगा उस किनारे का पांव ...जिसे पुल बनाकर छुआ नहीं जा सका ...