Tuesday, April 24, 2012

याद के टापू




रोज़ हर रोज़ ..बेनाम पते पर खत डाले ..सोचा, मज़मून अपनी शिद्दत की वजह से मंज़िलों तक पहुँच जाएगा ...पर, सोचा हुआ सच होता है कभी ...रूह की चिट्ठी पर तो साफ़ साफ़ लिख दिया उसका पता ...गहरे अक्षरों से खोदकर ...लेकिन मंज़िलें रवाना हो गयीं पता बताए बगैर ....रूह की चिट्ठी कहाँ डालती ...रख ली अपने पास ..........................................................
बरस बीते, जुग बीते ....दरिया बूढ़ा नहीं हुआ ...अलबत्ता याद के टापू उग आए उसके बीच ....किनारों ने कितने ही अफ़साने दरिया के पानियों पर लिख कर बहा दिए ...पर वो, समंदर तक पहुंचे ही नहीं ..............................................
कभी तो कोई बीज ...कोई अफ़साना..समंदर तक पहुंचेगा ....उगेगा साहिलों पर ....छू लेगा उस किनारे का पांव ...जिसे पुल बनाकर छुआ नहीं जा सका ...


6 comments:

  1. रूह की चिट्ठी ले जाने वाला एक डाकिया भी होता होगा......डाकिया वो होता है जिसे और रूहों के पते मालूम होते हैं......एक मालूम पते पर ख़त डालने से पहले उसे ढूढ़ना चाहिए...यह उसका पेशा होता है.....डाकिया इस मालूम पते पर सबसे आखीर मे जाता है.......कि उसे पता होता है कि पता ही इंतज़ार कर रहा है ख़त का.......

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    1. यहाँ तो रूह भी हम ..खत भी हम ..मज़मून भी हम ..और कासिद भी हम ....और इंतज़ार भी हमारा ही है जी

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  2. रकृति और प्रेम का सुन्दर चित्रण

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  3. कुछ लोगों के दिलों में कुछ पुराने कोने हैं, जिनसे कभी-कभी एक आवाज़ रिस आती है। उसकी दोस्त है, एहसास की रूह, दोनों तूलिका के गले से होकर हमारे कानों तक आते हैं। हां, फिर यहीं से समा जाते हैं हमारे दिल के पुराने कोनों में.

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    1. ये जो दिल के पुराने कोने हैं न ..वहाँ एक जोगी बैठा है धूनी रमाये ...समाधिस्थ ...उसके गले से निकले श्लोक रिस जाते हैं कभी कभी ...और हाँ दिल के कोने ही भाते हैं उसे

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