बरसों से उसने किसी को ख़त नहीं लिखा था ...लिखने का उतावलापन भी नहीं दिखा कभी ....लेकिन हर पल ..हर लम्हा ... ख़तों की स्क्रिप्ट्स ज़ेहन में लिखी जाती रहीं ...सहेजी जाती रहीं
कभी लिखे ही नहीं गए जो ...उन ख़तों को मंजिल तक पहुंचाने की कोई जल्दी भी नहीं थी उसे ....पर उसके इंतज़ार को एक भरोसा ज़रूर था ....एक ऐसा भरोसा ...जिस पर उम्र भर ख़त लिखे जा सकते थे ....उसका लिखना ....उसका प्रेम करना था ..अक्षरों के बिना, भावों के बिना ....दम घुटता था उसका ...प्रेम जीती थी वो ....
हर्फ़ों को कभी काग़ज़ पर नहीं उतारा ....यूँ कहें कि उसकी कलम और उसके काग़ज़ को साथ नसीब नहीं हुआ ...शायद इसे ही वो प्रेम का नसीब में न होना मानती रही .......डायरी और कलम हमेशा रहते थे उसके बैग में .............मगर डायरी के पन्ने कोरे बने रहे ....मन के पन्ने भरती रही वो .....हाँ ! वही !!....उदास है आज .....आज उसे लग रहा है कि उसकी कलम स्मूद नहीं चल रही .....कलम के रुक रुक कर चलने से न जाने क्यूँ घुटन होती है उसे ...जैसे ख़त के लिखे जाने का दिन थोड़ा और दूर हो गया हो ..........
बिना लिखे .....बेनाम से इन ख़तों के साथ जाने कैसा रिश्ता निभा रही थी वो ....जाने कब से लिख रही थी वो ......
लिखते जाने की मियाद भी ख़त्म नहीं होती कभी ....क्योंकि प्रेम भी ख़त्म नहीं होता कभी !!!